जूठे मन

कविता
जूठे  मन

कुछ हिस्सा जीवन
बदरंग आदमी
सोच
कृत्य
राजधानी
लगातार बार बार
जंगल में तब्दील
सड़क से संसद।

गलत गलत
चश्मे वाली आखों से
देसी वादे
उतरे -नहीं
हज़म सब
ख़त्म खेल।
पुराने मन में
नयापन
नहीं नहीं
भ्रम समझ
वही राजधानी
जंगल
सड़क से संसद
चेहरे मोहरे
बदरंग आदमी
बहुरे छत,
हत -प्रत
बुझा मन
वहीं चश्मे वाली नंगी ऑंखें
लुटेरा
सीधा-साधा
करोडों खाली पेट
तैरती दुगनी आंखे
उठाते इतने सिर।
कहीं अरबों की डकार
बडा  थैला
असरदार मुखिया
टाले  नहीं
हजारो घोटाले।
                           अभिषेक कान्त पाण्डेय 

See also  लोकसभा चुनाव: बदलनी होगी भाजपा को रणनीति

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top