उपेछित संगम नई कविता अभिषेक कान्त पाण्डेय
संगम की रेती
रेत के ऊपर गंगा
दौड़ती, यहाँ थकती गंगा
अभी-अभी बीता महाकुम्भ
सब कुछ पहले जैसा
सुनसान बेसुध।
टिमटिमाते तारें तले बहती, काली होती गंगा
बूढी होती यमुना।
महाकुम्भ गया
नहीं हो हल्ला
भुला दिया गया संगम।
एक संन्यासी
एक छप्पर बचा
फैला मीलों तक सन्नाटा
सिकुड़ गई संगम की चहल
नहीं कोई सरकारी पहल है-
चहल-पहल है-
कानों में नहीं संगम
आस्था है
वादे भुला दिए गए
भूला कोई यहाँ, ढूँढ नहीं पाया
यहाँ था कोई महाकुम्भ।
सरपट सरपट बालू केवल
उपेछित अगले कुम्भ तक।
फिर जुटेगी भीड़
फिर होंगे वादे
विश्व में बखाना जाएगा महामेला
अभी भी संगम की रेती में पैरों के निशान
रेलवे स्टेशन की चीखातीं सीढियाँ
टूटे चप्पल के निशान
हुक्मरान ढूंढ़ रहें आयोजन का श्रेय।
अब पर्यटक, पर्यटन और आस्था गुम
महाकुम्भ के बाद
यादें, यादें गायब वादे, वादे
धसती रेतीली धरा
सिमटती प्रदूषण वाली गंगा।
आने दो फिर
हम करेंगे अनशन
त्यौहार की तरह हर साल
बुलंद होगी आवाज़
फिर खामोशी संगम तट पर
बस, बास डंडों, झंडों में सिमट चुका संगम
उपेछित संगम। अभिषेक कान्त पाण्डेय