वह तंत्र, मैं लोकतंत्र

कविता
​अभिषेक कांत पाण्डेय भड्डरी

कमाल की बात है
सत्ता वंश में है
वंश बनाम लोकतंत्र
वंश को एक प्रसिद्धि चाहिए।
वंश कहता बन जाओ सिपाही
बगावत करो मेरे लिए
सूझ बूझ का बाण
पैनी समझ की तीर छोड़ता
वह जानता
जनता नहीं कहेगी
सिंघासन खाली करो।
उसी ने तो बैठाया है
वंश के वेश में मैं
कहीं कोई जोगी तो कहीं कोई लड़का,
कोई वंश हुकूमत का सीख रहा ककहरा।
उसी धरती का किसान
जोत रहा है नये खेत
खाद पानी से सीचेगा
नये बीज डालेगा
बीजपत्र से निकलेगा
एक नई चेतना।
वह जवाब होगी
उस राजमहल के अंदर चल रही
सूझ बूझ का
जो लोकतंत्र को बदल दिया है
वंश की बेल में,
जिसकी शाखाएं
उलझी जनता के मन में।
जनता इस उलझन में नहीं
वो तो एक लोहार की तरह
बना रहा है नया औजार
भरोसे की पॉलिस से मांजकर
न लगने वाले जंग से
खराब होने वाले इस तंत्र में
एक मरम्मत करेगा।
बस एक बार इसलिए उस सूझ बूझ को जो
सत्ता दीवारों और उन परिवारों के बीच खेली जाती है
इतिहास से अब तक।
वहीं इसी बीच
उन सरकारी रिपोर्टों पर
प्रहार है
जो वादे में, जो परिवार से लिखती है बनावटी स्क्रिप्ट
जनता को समझाती है
​फिर लोकतंत्र में हासिल करती
बाप दादाओं के मार्फत एक नई जमीन।
फिर सत्ता में लौट
बिखेरीती एक घड़ियाली नई मुस्कान
इस बार हम तैयार हैं।

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