अब मैं कहूं
कुछ भी कहूं न अब क्यों?
पीडा मन में लिए रिसता रहूं पहाडों से,
तब भी कुछ नहीं कहूँ।
जब तडपता रहूं
रेत में तपता रहूं
तो क्यों न कहूं?
जिस संसार में तुम हो
उसका मैं हिस्सा हूं।
आंखों में मैं आंसू बनूं
और तुम हंसते रहो
तब भी मैं कुछ न कहूं।
दुनिया न जान ले तब,
क्या ये मर्यादा मैं ही ढोऊं
आखिर कब तक न कहूं।
परछाई सी होती जिंदगी
जिंदगी को क्यों ढोऊं?
आखिर कब तक यूं,
उडता रहे मजाक।
अब मैं कहूं?
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
अभिषेक कांत पाण्डेय