कला—साहित्य कविता

अब मैं कहूं

            अब मैं कहूं

कुछ भी कहूं न अब क्यों?
पीडा मन में लिए रिसता  रहूं पहाडों से,
तब भी कुछ नहीं कहूँ।

जब तडपता रहूं
रेत में तपता रहूं
तो क्यों न कहूं?

जिस संसार में तुम हो
उसका मैं हिस्सा हूं।
आंखों में मैं आंसू बनूं
और तुम हंसते रहो
तब भी मैं कुछ न कहूं।

दुनिया न जान ले तब,
क्या ये मर्यादा मैं ही ढोऊं
आखिर कब तक न कहूं।

परछाई सी होती  जिंदगी
जिंदगी को क्यों ढोऊं?
आखिर कब तक यूं,
उडता रहे मजाक।
अब मैं कहूं?

(सर्वाधिकार सुरक्षित)

अभिषेक कांत पाण्डेय

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