Last Updated on May 5, 2014 by Abhishek pandey
विश्वविद्यालय की डिग्री
यहीं से सीखा पाया
समाज में उतरने के लिए
फैलाना था पंख
लौट के आने वाली उड़ान
भरी थी मैंने विश्वविद्यलाय की दीवारों में।
दस साल बाद
विश्वविद्यालय की सीलन भरी दीवार
सब कुछ बयान कर रही
नहीं ठीक
सूखे फव्वारे अब किसी को नहीं सुख देते
सलाखों में तब्दील विश्वविद्यालय।
समय बदल गया
पर मेरी डिग्री वही
याद वहीं
इमारतों के घोसले भी गायब
पंख नहीं मार सकती चिड़िया
अजादी पैरों में नहीं
विचारों में पैदा नहीं होने दी गई।
विचरने वाले पैसों में ज्ञान को बदल रहें
दस साल का हिसाब मुझसे मांग रहा
विश्वविद्याल की इमारतें।
ंबयान कर रहा है जैसे नहीं बदला
बता रही बदल गए तुम।
मैंने कहा डिग्री सीढ़ा गई
सीलन भरी दीवार में अटकी
फांक रही है धूले
मैंने सीख लिया है
नया ताना बाना,
विश्वविद्यालय सीखने को नहीं
नहीं बदलने को तैयार
मैंन भी निकाल ली अखबार की कतरने
दिखा दिया बेरोजगार डिग्री
गिना दिया दफन हो गई डिग्रियों के नाम
कल आज में,
बिना डिग्री वाला नाम
तुझ पर इतिहास बनाएगा
तुझे नचाएगा
डिग्री वाले ताली बजाएंगे
एक अदद नौकरी के लिए।
अभिषेक कांत पाण्डेय
Author Profile
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Author Abhishek Pandey, (Journalist and educator) 15 year experience in writing field.
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