कुआं और मैं कविता

Last Updated on April 7, 2020 by Abhishek pandey


  • कुआं और मैं     कविता

कुआं आज भी सही सलामत है, 
बस उसके कुछ कदम की दूरी पर ऊँची ऊँची इमारतें तन गईं,/
 खत्म हो गया मोहल्लानुमा गाँव, 
बन गईं घोसलानुमा कालोनियाँ। 
खत्म हो गई, बिराहा कठपुतली, रामलीला लोक संस्कृति/
न वैसे  लोग,  ना ऐसे लोग,  जाने कैसे-कैसे लोग,
होम हो गया वह मोहल्लानुमा गांव 
या गांवनुमा मोहल्ला, 
शहर ने अपने रंग में रंग लिया
हटा दिए गए लोग
उजाड़ दी गई बस्ती,
उजाड़ दिया गया मोहल्ला
क्योंकि
बसाना था
अमीरों के लिए घोसला।
बाप से दादाओं ने बताया था, 
कई बार अपने इतिहास में उजड़ा और बसा है 
पर कारण तब और थे 
पर अब कारण-
 शहर में घटती जमीन का सैलाब 
इस मुहल्लेनुमा गाँव में आया था
पीढ़ियों से रह रहे लोगों को उजाड़ दिया
लोगों ने अपने टूटते घरों में
लोगों ने अपने टूटते जीवन को देखा
लोगों ने अपने बांधे छप्पर को गिरते देखा
लोगों ने अपने हाथों से उठाएं दीवार को ढहते देखा/
आंगन में लगा अनार का पेड़
फिर उसके बाद कभी नहीं फरा
वहां कुआं  अभी भी है
उसके जगत पर
मेरे पैरों के निशान अभी भी है
उसके पत्थरों पर
उस रस्सी के निशान अभी भी है
खामोश
ऊँची बिल्डिंगों को देख
कुआँ
अभी भी खोजता है
हमारे जैसे लोग
मोहल्ले के लल्ली ने बताया-
हां, याद आया वह लल्ली
जिसकी हर पतंग की उड़ान में
उस समय उसके उम्र के
  हर बच्चे दीवाने थे
हवा की कलाबाजी की तकनीक 
  पतंग बनाने उड़ाने की तकनीक
 बिना यूट्यूब के ऑनलाइन
 सामने उसी कुएँ की जगत पर सिखाता था../
हां, कल उसने बताया
 कुआँ रात रात भर रोता है 
इसलिए 20 साल बाद भी  
नहीं सुखा उसका खारा  पानी।
अभिषेक कांत पांडेय
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Author Profile

Abhishek pandey
Author Abhishek Pandey, (Journalist and educator) 15 year experience in writing field.
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